डॉ. सौरभ मालवीय
भारतीय राजनीति में अनेक विचारधाराएं प्रचलित हैं। इसमें ''सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'' प्रमुख है। ऐसी परिस्थितियां बन गईं है कि अब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की उपेक्षा नहीं हो सकती। यह विचारधारा भारत की मूलचितंन से उपजी है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अर्थ बहुत व्यापक है। सामान्य तौर पर देखा जाए तो राष्ट्रवाद की दुनिया में इसे ठीक से व्याख्यायित नहीं किया गया है। विभिन्न विचारकों के मत में राष्ट्रवाद के सम्बन्ध में जबरदस्त विरोधाभास है। प्रमुख तौर पर दुनियाभर में जिन विचारधाराओं ने अपनी प्रभावी छाप छोड़ी है उनमें से समाजवाद, पूंजीवाद, साम्यवाद उल्लेखनीय है।
पूंजीवाद जहां अमीरों की संख्या बढ़ाता है वहीं दूसरी तरफ गरीबों की संख्या में वृध्दि होती जाती है। यह समाज में खाईं पैदा करता है। वहीं समाजवाद कोई निश्चित विचारधारा नहीं है। ऐसा कहा जाता है कि समाजवाद वैसी टोपी है, जिसको सब पहनना चाहते हैं जिसके फलस्वरूप उसकी शक्ल बिगड़ गई। समाजवाद विचारधारा कहीं सफल नहीं हो सकी। यह समाज में समानता की बात जरूर करता, लेकिन जो परिणाम विभिन्न देशों और अपने देश में देखने को मिले वे बिल्कुल विपरीत हैं। इसी प्रकार समाज में समता की बात करने वाले साम्यवाद ने लोगों की आशाओं पर पानी फेरा। साम्यवाद एक शोषणविहीन समाज का सपना दिखाता है। उसका साध्य अवश्य पवित्र है, लेकिन साधन ठीक उसके उल्टे अत्यंत गलत हैं। वह हिंसा को सामाजिक क्रांति का जनक मानता है और दुनियाभर में साम्यवादी विचारधारा के नाम पर जितनी हत्याएं की गईं उसका विवरण दिल दहला देता है। इन सभी विचारधाराओं का प्रयोग भारत की धरती पर भी हुआ और इन सबसे जनता का मोह भंग भी हो गया। अपने देश में प्रमुख विचारधारा कांग्रेस के रूप में सामने आई। निश्चित रूप से देश को आजादी दिलाने में कांग्रेस ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। आजादी के पूर्व की कांग्रेस ने भारतीय समाज में चेतना जगाने का कार्य किया, जिससे लोगों को विश्वास और संबल प्राप्त हुआ। कांग्रेस ही एकमात्र अखिल भारतीय पार्टी थी, जिससे जनता को बहुत आशाएं थीं। देश आजाद हुआ और कांग्रेस की सरकार बनी मगर हमारे पहले प्रधानमंत्री भारत की मूल विचार को ठुकराते हुए पश्चिम की ओर ताकने लगे। समाजवाद, साम्यवाद और पूंजीवाद की तिकड़ी पकाकर इस देश में शासन चलाने का प्रयास किया गया। आखिर परिणाम ढाक के तीन पात ही निकले। क्योंकि भारतीय जनता सरकार से दूर होती गई और आजादी के कुछ ही वर्षों बाद सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भारत के राजनीतिक क्षितिज पर चमकने लगा। प्रख्यात क्रांतिकारी व विचारक अरविंदो, युवा संयासी विवेकानंद, रामकृष्ण परहंस, आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद, महात्मा गांधी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आद्य सरसंघ चालक डॉ. केशवराम बलिराम हेडगेवार व भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के विचारों को प्रधानता मिली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं भाजपा तथा उसके पर्वूवर्ती भारतीय जनसंघ ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मंत्र को देशभर में गुंजाया। अब सवाल उठता है कि राष्ट्र क्या है ? क्या भारत एक राष्ट्र है ? क्या भारतीय राष्ट्र के संपूर्ण भूगोल पर किसी एक शासक का शासन रहा है। आखिर वो कौन सी ताकत है जो भारत को एक राष्ट्र के रूप में पहचान दिलाती है। यहां यह समझना आवश्यक होगा कि राष्ट्र व राज्य में अन्तर होता है। भारतीय राष्ट्र और पश्चिम के नेशन स्टेट में जमीन-आसमान का अन्तर है। वामपंथी और अंग्रेजी इतिहासकारों ने भारत को एक राष्ट्र मानने से इंकार कर दिया। उनका कहना था कि भारत सोलह राष्ट्रीयताओं वाला देश है। क्या यह उचित है ? अब हम यहां पर राष्ट्र शब्द के बारे में भारतीय परिप्रेक्ष्य में चर्चा करेंगे। राष्ट्र शब्द सबसे पहले हजारों वर्ष पूर्व लिखे गए भारत के ऐतिहासिक ग्रंथ ऋग्वेद में उल्लेखित है।
किसी राष्ट्र के लिए सबसे आवश्यक तत्व है- एक भूखंड, जो किसी प्राकृतिक सीमाओं से घिरा हुआ हो। दूसरा, प्रमुख तत्व है उस विशिष्ट भू-प्रदेश में रहने वाला समाज, जो उसके प्रति मातृभूमि के रूप में भाव रखता हो। इस प्रकार जब समाज मर्यादा, परम्पराओं एवं सब दुख, शत्रु-मित्र के समान अनुभूति वाला हो जाता है तब उसे राष्ट्र कहा जा सकता है।
राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद आदि अवधारणाओं का जन्म पश्चिम में अभी सवा दो सौ वर्ष पूर्व विशेषकर फ्रेंच क्रांति (1789) के पश्चात् हुआ है। वे मानते हैं कि राष्ट्र एक राजनीतिक संकल्पना है।
पाश्चात्य, कम्युनिस्ट और कांग्रेसी मानते हैं कि - "We are nation in he making and India has a multiple culture and pluralist society.'
अथर्ववेद कहता है 'सा नो भूमि: लिषिं बलं राष्ट्र
दयातत्वमें' यह हमारी मातृभूमि हमारे इस राष्ट्र में तेज तथा बल को धारण कर उसे बढ़ाए।
विष्णु पुराण उद्धोष कहता है -
'उत्तरं यत्समुप्रस्य' हिमाद्रेश्चैव दक्षिणाम्।
वर्ष तद् भारतं नाम भारती यस्य सन्तति:॥'
(समुद्र के उत्तर में और हिमालय' के दक्षिण में जो स्थित है उसका नाम भारत है और उसकी संतान भारतीय है)
राष्ट्र के बुनियादी तत्व :
मातृभूमि के प्रति श्रध्दा एवं निष्ठा,
साहचर्य अथवा भ्रातृत्व की भावना और
राष्ट्र जीवन की समानधारा की उत्कृष्ट चेतना।
राष्ट्र किसी भौगोलिक सीमा का नाम नहीं, बल्कि संस्कृति सूचक एक विशेष शब्द है। राष्ट्र की कोई भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि भूगोल पर आधारित भावनात्मक इकाई है, जिसे प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति, उसके आचार-विचार भिन्न होते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक राष्ट्र की प्रकृति भी भिन्न होती है।
राष्ट्रीयता निर्माण होने के लिए तथा उसके स्थायित्व के लिए कुछ कारक तत्व होते हैं। समान इतिहास, परम्परा व संस्कृति के प्राण हैं, जिनके बिना राष्ट्रीयता उभर ही नहीं सकती। जिन मानव समूहों का वह राष्ट्र है उनको निवास के लिए स्थान चाहिए। अन्य घटक तत्व हो 19वीं और 20वीं शताब्दी में आवश्यक माने गये हैं, वह है भाषा, पंथ, वंश एवं राज्य। इनके अतिरिक्त कुछ सहायक तत्व और भी है, जैसे समान आर्थ्ािक हित सम्बन्ध, साहित्य और साहित्यिक सीमाएं तथा जलवायु।
भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थनीति के चरम से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा। भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के माध्यम से न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी।
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था, 'राष्ट्र केवल भौतिक निकाय नहीं हुआ करता। राष्ट्र में रहने वाले लोगों के अंत:करण में अपनी भूमि के प्रति श्रध्दा की भावना का होना राष्ट्रीयता की पहली आवश्यकता है। भारतीय संस्कृति की पहली विशेषता यह है कि वह सम्पूर्ण जीवन का, सम्पूर्ण सृष्टि का संकलित विचार करती है।
भारत देश मूलत: संस्कृति प्रधान है। यह इस संस्कृति का ही जादू है कि यूनान, मिस्र और रोम नक्शे से मिट गए पर भारत का अस्तित्व यूं कहे भारतीयता बनी रही। हर दौर में यहां की संस्कृति बार-बार अपने मूल स्वरूप की ओर लौटती रही। इसका कारण सिर्फ इतना है कि हम भारतीयों ने इस देश की मिट्टी, नदियों, पर्वतों, मैदानों, पठारों, परम्पराओं, देवी, देवताओं से ऐसा तारतम्य स्थापित कर लिया है कि कोई बाहरी ताकत इसको प्रभावित करने की जितनी भी चाहे, चेष्टा कर ले, हम अपनी जड़ों को विस्मृत नहीं करते।
भारतीय राष्ट्रीवाद का आधार हमारी युगों पुरानी संस्कृति है। भारत एक देश है और सभी भारतीय जन एक हैं। परंतु हमारा यह विश्वास है कि भारत के एकत्व का आधार उसकी युगों पुरानी संस्कृति में ही निहित है - इस बात को न्यायालय के अनेक निर्णयों में स्वीकार किया है। प्रदीप जैन बनाम भारत संघ (1984) मामले में निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायधीश जस्टिस पी.एन. भगवती और अमरेन्द्रनाथ सेन तथा जस्टिस रंगनाथ मिश्र ने कहा था - 'यह इतिहास का रोचक तथ्य है कि भारत का राष्ट्र के रूप में अस्तित्व बनाए रखने का कारण एक समान भाषा या इस क्षेत्र में एक ही राजनीतिक शासन का जारी रहना नहीं है। बल्कि सदियों पुरानी चली आ रही एक समान संस्कृति है यह सांस्कृतिक एकता है, जो किसी बंधन से अधिक मूलभूत और टिकाऊ है, जो किसी देश के लोगों को एकजुट करने में सक्षम है और जिसने इस देश को एक राष्ट्र के रूप में बांध रखा है।
पिछले अनेक युगों से तीर्थ स्थलों के देश भारत में बर्फीली हिमालय पर्वतमाला में स्थित बद्रीनाथ, केदारनाथ और अमरनाथ से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक लोगों के लिए श्रध्दा के केन्द्र हैं। इन महान् तीर्थों में कोई विशेष बात है जो लोगों को दक्षिण से उत्तर और उत्तर से दक्षिण की यात्रा करने के लिए प्रेरित करती है। यह एक देश और संस्कृति की भावना है और इस भावना ने हम सबको जोड़ रखा है।
हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारत माता है, केवल भारत नहीं। माता शब्द हटा दीजिए तो भारत केवल जमीन का टुकड़ा मात्र रह जाएगा।
भारत वर्ष का भविष्य अभी बनना है और वह भविष्य सांस्कृतिक दृष्टि पर आधारित होगा भारतीयता पर आधारित होगा। वह सच्चे अर्थों में भारत होगा। संस्कृत में भारत का अर्थ है वह जो 'प्रवाह में रत है - प्रवाह के प्रति प्रतिबध्द है, वही भारत है।
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