Saturday, May 17, 2025

पत्रकार की लेखनी में भारत निर्माण का भाव होना आवश्‍यक : सुभाष जी




 • आद्य पत्रकार देवर्षि नारद जी की जयंती के उपलक्ष्‍य में 'लोकमंगल की पत्रकारिता एवं राष्‍ट्रधर्म' विषयक विचार गोष्‍ठी का आयोजन

• विश्‍व संवाद केन्‍द्र लखनऊ तथा पत्रकारिता व जनसंचार विभाग लखनऊ विश्‍वविद्यालय के संयुक्‍त तत्‍वावधान में किया गया कार्यक्रम
लखनऊ। 'एक पत्रकार 'सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय' की भावना के साथ पत्रकारिता करके लोकमंगल का आह्वान करता है। पत्रकार अपनी कार्यशैली से समाज का मार्गदर्शन करने का कार्य करता है। उसकी लेखनी में भारत निर्माण का भाव होना चाहिये।' ये विचार राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के पूर्वी उत्‍तर प्रदेश क्षेत्र के क्षेत्र प्रचार प्रमुख सुभाष जी ने प्रकट किये। वे विश्‍व संवाद केन्‍द्र लखनऊ तथा पत्रकारिता व जनसंचार विभाग लखनऊ विश्‍वविद्यालय के संयुक्‍त तत्‍वावधान में आयोजित 'लोकमंगल की पत्रकारिता एवं राष्‍ट्रधर्म' विषयक विचार गोष्‍ठी को सम्‍बोधित कर रहे थे। यह कार्यक्रम आद्य पत्रकार देवर्षि नारद जी की जयंती के उपलक्ष्‍य में आयोजित किया गया था। 
सुभाष जी ने कार्यक्रम को सम्‍बोधित करते हुये कहा कि पत्रकार एक योद्धा होता है। वह देश और समाज के विकास कार्य में अपने जीवन को गलाता है। आद्य पत्रकार देवर्षि नारद जी पौराणिक काल में एक आदर्श पत्रकार की भूमिका निभाते हुये संदेश का सम्‍प्रेषण करते थे। मगर उन्‍हें एक विदूषक की भांति फिल्‍मों में प्रचारित किया गया। इस विषय पर प्रकाश डालते हुये उन्‍होंने 80 के दशक में पंजाब के हालातों का वर्णन करते हुये कहा कि पंजाब केसरी समाचार पत्र के सम्‍पादक लाला जगतनारायण ने उस समय अपनी पत्रकारिता से राष्‍ट्रधर्म का मान रखते हुये समाज में व्‍याप्‍त आतंक का विरोध किया। उनकी हत्‍या कर दी गयी लेकिन उन्‍होंने जो पत्रकारिता के क्षेत्र में जो कार्य किया वह वंदनीय है। इसी प्रकार उन्‍होंने दैनिक जागरण के सम्‍पादक रहे नरेंद्र मोहन जी की पत्रकारिता का वर्णन करते हुये कहा कि वे पत्रकारिता के धर्म का पूर्ण पालन करते थे। साथ ही, उन्‍होंने गीता प्रेस गोरखपुर के हनुमान प्रसाद पोद्दार जी का उल्‍लेख करते हुये कहा कि सम्‍मान और धन कमाने की लालसा को त्‍यागकर उन्‍होंने जिस प्रकार अपनी लेखनी से धर्म का प्रचार एवं प्रसार किया वह अविस्‍मरणीय है। उन्‍होंने वर्तमान में की जा रही पत्रकारिता का उल्‍लेख करते हुये कहा कि एक पत्रकार की लेखनी में भारत निर्माण का भाव होना चाहिये। उसे अपनी लेखनी से सदैव ही लोकमंगल की कामना करनी चाहिये। अंत में उन्‍होंने कहा कि रामचरितमानस में भी नारद जी का वर्णन आते ही तुलसीदास जी ने उनकी व्‍याख्‍या एक कोमल हृदय वाले व्‍यक्ति के समान की है। अत: एक पत्रकार का हृदय कोमल होना चाहिये ताकि वह भाव समझ सके। 

कोई भी सूचना देश की सुरक्षा से बड़ी नहीं : प्रवीण कुमार 
इसके पश्‍चात कार्यक्रम को सम्‍बोधित करते हुये विशिष्‍ट अतिथि के रूप में उपस्थित टाइम्‍स ऑफ इंडिया के स्‍थानीय सम्‍पादक प्रवीण कुमार जी ने कहा कि आधुनिक युग की पत्रकारिता के महर्षि नारद प्रणेता रहे हैं। उनकी कार्यशैली बिल्‍कुल एक पत्रकार की तरह थी। उन्‍होंने चिंता प्रकट करते हुये कहा कि नारद जी को एक विदूषक की तरह प्रस्‍तुत किया गया जो पूरी तरह से गलत है। नारद जी ने अपनी कार्यशैली से राष्‍ट्रहित और जनहित की पत्रकारिता का परिचय दिया है। हर कालखंड में आरम्‍भ किया गया समाचार पत्र लोक कल्‍याण की भावना को बढ़ावा देने के साथ किया गया। उन्‍होंने वर्तमान के पत्रका‍रों को सम्‍बोधित करते हुये कहा कि कठिन विषयों को आसानी से समझाना एक पत्रकार की विशेषता होनी चाहिये। उसे जनता से सीधा संवाद स्‍थापित करके समस्‍या को उजागर करना चाहिये। उसकी लेखनी में सद्भावना होनी चाहिये। अंत में उन्‍होंने एक गम्‍भीर विषय पर प्रश्‍न उठाते हुये कहा कि ऑपरेशन सिंदूर के समय कई पत्रकार गलत तरीके से पत्रकारिता करते हुये देशहित से उलट कार्य कर रहे थे। वर्तमान में सूचना का प्रसारण करते समय ऐसी गलतियों से राष्‍ट्र का अहित होता है। अत: यह जानना आवश्‍यक है कि कौन सी सूचना कितनी बतानी चाहिये। कोई भी सूचना देश की सुरक्षा से बड़ी नहीं है।

सदैव राष्‍ट्रधर्म का भाव लेखनी में हो : आशुतोष शुक्‍ल
आयोजन के मुख्‍य अतिथि के रूप में उपस्थित दैनिक जागरण के प्रदेश सम्‍पादक आशुतोष शुक्‍ल जी ने कहा कि एक पत्रकार समाज में रहते हुये भी समाज से विरक्‍त रहकर समाज को जागरूक करने का कार्य करता है। उन्‍होंने गोष्‍ठी के विषय का उल्‍लेख करते हुये कहा कि लोकमंगल की बात करेंगे तो राष्‍ट्रधर्म की ही बात होगी। एक पत्रकार को सदैव राष्‍ट्रधर्म का भाव अपनी लेखनी में रखना चाहिये। उन्‍होंने पत्रकारों का मार्गदर्शन करते हुये कहा कि पत्रकारों को कोई पसंद नहीं करता क्‍योंकि वह समाज को आईना दिखाने का कार्य करता है। फिर भी पत्रकार को अपना दायित्‍व निभाते हुये सच्‍चाई को उजागर करते रहना चाहिये। उन्‍होंने बताया कि एक पत्रकार की धमक उसकी बीट पर गूँजती है। उसके समाचारों में मात्र निंदा नहीं होनी चाहिये। उसमें समस्‍या का समाधान भी निहित होना चाहिये। नकारात्‍मकता को बढ़ावा देना पत्रकारिता नहीं है। उन्‍होंने कहा कि देशहित सर्वोपरि होना चाहिये। देशहित ही सबसे बड़ा धर्म है। राष्‍ट्रधर्म के भाव के साथ ही पत्रकारिता की जानी चाहिये। एक पत्रकार को निरन्‍तर अध्‍ययन करना चाहिये। अध्‍ययन करने से ही उसकी लेखनी में जोर आता है। उन्‍होंने सोशल मीडिया के सम्‍बंध में कहा कि आज के दौर में हर आदमी न्‍यायाधीश की भूमिका निभाने लगा है, जो उचित नहीं है। उन्‍होंने कहा कि यदि आपके आस-पास समाज में कुछ भी अनुचित होता दिखे और आप उसे रोकने की इच्‍छा रखते हैं, प्रयास करते हैं तो आप एक पत्रकार हैं। 

पत्रकारिता में जवाबदेही जरूरी : प्रो आलोक राय 
कार्यक्रम की अध्‍यक्षता कर रहे लखनऊ विश्‍वविद्यालय के उपकुलपति आलोक राय जी ने कहा कि पत्रकारिता में जवाबदेही का होना बहुत आवश्‍यक है। बिना जवाबदेही के किया समाचार लेखन व प्रसारण मात्र समाचार का सम्‍प्रेषण है, पत्रकारिता नहीं। उन्‍होंने बताया कि आज भी कई बार विश्‍वविद्यालय में व्‍याप्‍त समस्‍याओं की जानकारी हमें समाचार पत्रों के माध्‍यम से होती है, उस समस्‍या को दूर करने का कार्य किया होता है। यही कारण है कि बीते कुछ वर्षों में एलयू में कई प्रकार के विकास कार्य हुये जो शहर और प्रदेश के लिये गौरव का विषय बने। उन्‍होंने बताया कि विदेशी छात्रों का कैम्‍पस में पंजीकरण बढ़ा है। इससे एलयू की मजबूत होती साख का पता चलता है। 

पुस्‍तक का विमोचन 
अंत में कार्यक्रम में उपस्थित सभी गणमान्‍य सदस्‍यों का राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के अवध प्रांत के प्रांत प्रचार प्रमुख डॉ अशोक दुबे जी ने आभार प्रकट किया। इस कार्यक्रम में मंच पर विश्‍व संवाद केन्‍द्र न्‍यास के अध्‍यक्ष नरेंद्र भदौरिया जी भी उपस्थित रहे। कार्यक्रम का संचालन डॉ कृतिका अग्रवाल ने किया। इस अवसर पर डॉ सौरभ मालवीय रचित पुस्‍तक 'भारतीय पत्रकारिता के स्‍वर्णिम हस्‍ताक्षर' का विमोचन किया गया।
कार्यक्रम में रहे उपस्थित : कार्यक्रम में प्रमुख रूप से राष्‍ट्रधर्म पत्रिका के निदेशक मनोजकांत जी, लखनऊ विश्‍वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के अध्‍यक्ष डॉ मुकुल श्रीवास्‍तव, चीफ प्रॉक्‍टर डॉ राकेश द्विवेदी, हिन्दुस्थान समाचार के स्टेट ब्यूरो चीफ दिलीप शुक्ला जी, डॉ अमित कुशवाहा, डॉ नीलू शर्मा, प्रांत प्रचारक प्रमुख यशोदानन्‍द जी, प्रशांत भाटिया, विश्‍व संवाद केन्‍द्र प्रमुख डॉ उमेश जी, सर्वेश द्विवेदी, डॉ लोकनाथ जी, विभाग प्रचारक अनिल जी, क्षेत्र मुख्‍यमार्ग कार्य प्रमुख राजेंद्र सक्‍सेना, डॉ यशार्थ मंजुल, दुष्‍यंत शुक्‍ल, मोहित महाजन, दिलशेर सिंह, विनोद जी, श्‍याम त्रिपाठी जी, एडवोकेट उमेश चंद्र, डॉ अनूप चतुर्वेदी, सचित्र मिश्र, शिवशंकर पाण्‍डेय, मृत्‍युंजय श्रीवास्‍तव एवं श्‍याम यादव आदि उपस्थित रहे।

भारतीय पत्रकारिता के स्वर्णीम हस्ताक्षर का लोकार्पण

 



डॉ. सौरभ मालवीय की पुस्तक भारतीय पत्रकारिता के स्वर्णीम हस्ताक्षर का लोकार्पण

मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ को पुस्तक भेंट की


मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ जी महाराज से आज लखनऊ में विद्या भारती, पूर्वी उत्तर प्रदेश क्षेत्र के मंत्री डॉ. सौरभ मालवीय जी एवं श्री राम सिंह जी, प्रदेश निरीक्षक, शिशु शिक्षा समिति ने शिष्टाचार भेंट की। सौरभ मालवीय जी ने मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ जी महाराज को अपनी पुस्तक भारतीय संत परम्परा : धर्मदीप से राष्ट्रदीप भेंट की। 

इस अवसर पर सरस्वती विद्या मंदिर, बस्ती के प्रबंधक डॉ. सुरेन्द्र प्रताप सिंह जी एवं प्रधानाचार्य श्री गोविन्द सिंह जी व श्री उमाशंकर जी भी उपस्थित रहे।

Friday, May 16, 2025

पर्यावरण संरक्षण से बचेगा मानव जीवन


डॉ. सौरभ मालवीय
मानव जाति के संरक्षण के लिए पर्यावरण की सुरक्षा अत्यंत आवश्यक है। दिन-प्रतिदिन दूषित होते पर्यावरण की रक्षा एवं इसके संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करने करने के उद्देश्य से प्रति वर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा 1972 में इसकी घोषणा की गई थी। इसके पश्चात 5 जून, 1974 को प्रथम विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया था तथा तबसे यह निरन्तर मनाया जा रहा है। पर्यावरण शब्द संस्कृत भाषा के 'परि' एवं 'आवरण' से मिलकर बना है अर्थात जो चारों ओर से घेरे हुए है।
                         
मानव शरीर पंचमहाभूत से निर्मित है। पंचभूत में पांच तत्त्व आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी सम्मिलित है। सभी प्राणियों के लिए वायु एवं जल अति आवश्यक है। इसके पश्चात मनुष्य को जीवित रहने के भोजन चाहिए। भोजन के लिए अन्न, फल एवं सब्जियां उगाने के लिए भी जल की ही आवश्यकता होती है। परन्तु पर्यावरण के प्रदूषित होने से मानव के समक्ष अनेक संकट उत्पन्न हो गए हैं। वर्षा अनियमित हो गई है। बहुत से कृषकों को अपनी फसल की संचाई के लिए वर्षा पर निर्भर रहना पड़ता है। पर्याप्त वर्षा न होने पर उनकी फसल सूख जाती है। अधिकांश क्षेत्र ऐसे हैं, जहां पर वर्षा नाममात्र की ही होती है। अत्यधिक रसायनों और कीटनाशकों के प्रयोग से उपजाऊ भूमि बंजर होती जा रही है। जलवायु परिवर्तन एवं जल के अत्यधिक दोहन के कारण भू-जल स्तर निरन्तर गिरता जा रहा है। विभिन्न क्षेत्रों में जल संकट बना हुआ है। लोग जल के लिए त्राहिमाम कर रहे हैं।  
 
भारतीय संस्कृति में प्रकृति को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसी कारण भारत में प्रकृति के विभिन्न अंगों को देवता तुल्य मानकर उनकी पूजा-अर्चना की जाती है। भूमि को माता माना जाता है। आकाश को भी उच्च स्थान प्राप्त है। वृक्षों की पूजा की जाती है। पीपल को पूजा जाता है। त्रिवेणी की पूजा की जाती है। त्रिवेणी में सभी देवी-देवताओं एवं पितरों का वास माना जाता है। त्रिवेणी तीन प्रकार के वृक्षों के समूह को कहा जाता है, जिसमें वट, पीपल एवं नीम सम्मिलित हैं। इनके पौधे त्रिकोणीय आकार में रोपे जाते हैं तथा जब ये सात फीट तक ऊंचे हो जाते हैं, तो इन्हें आपस में मिला देते हैं। इनका संगम ही त्रिवेणी कहलाता है। मान्यता है कि जो व्यक्ति त्रिवेणी लगाकर इसका पालन-पोषण करता है, तो पूण्य की प्राप्ति होती है तथा उसका कोई भी सात्विक कर्म विफल नहीं होता। पंचवटी की पूजा होती है। पंचवटी पांच प्रकार के वृक्षों के समूह को कहा जाता है, जिसमें वट, पीपल, अशोक, बेल एवं आंवला सम्मिलित है। इन्हें पांचों दिशाओं में रोपा जाता है। पीपल पूर्व दिशा में रोपा जाता है, जबकि, बरगद पश्चिम दिशा में, बेल उत्तर दिशा में तथा आंवला दक्षिण दिशा में रोपा जाता है। मान्यता है कि बरगद वृक्ष की जड़ों में ब्रह्मा का वास होता है तथा तने में विष्णु एवं डालियों में शिव का वास करते हैं. इसके अतिरिक्त वृक्ष की लटकी हुई शाखाओं को देवी सावित्री का रूप माना जाता है। महिलाएं मनोकामना की पूर्ति के लिए वट कू पूजा करती हैं। घरों में तुलसी को पूजने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। नदियों को माता मानकर पूजा जाता है। कुंआ पूजन होता है। अग्नि और वायु के प्रति भी लोगों के मन में श्रद्धा है। वेदों के अनुसार ब्रह्मांड का निर्माण पंचतत्व के योग से हुआ है, जिनमें पृथ्वी, वायु, आकाश, जल एवं अग्नि सम्मिलित है।
इमानि पंचमहाभूतानि पृथिवीं, वायुः, आकाशः, आपज्योतिषि
 
पृथ्वी ही वह ग्रह है, जहां पर जीवन है। वेदों में पृथ्वी को माता और आकाश को पिता कहा गया है।
ऋग्वेद के अनुसार-
द्यौर्मे पिता जनिता नाभिरत्र बन्धुर्मे माता पृथिवी महीयम्
अर्थात् आकाश मेरे पिता हैं, बंधु वातावरण मेरी नाभि है, और यह महान पृथ्वी मेरी माता है।
 
अथर्ववेद में भी पृथ्वी को माता के रूप में पूजने की बात कही गई है। अथर्ववेद के अनुसार-
माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः
 
इतना ही नहीं वेदों में सभी जीवों की रक्षा का भी कामना की गई है। ऋग्वेद के अनुसार–
पिता माता च भुवनानि रक्षतः
 
जल जीवन के लिए अति आवश्यक है। जल के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
वेदों में जल को अमृत कहा गया है-
अमृत वा आपः
 
जल ही है, जो मनुष्य के तन और मन के मैल को धोता है। तन और मन को पवित्र करता है-
इदमाप: प्र वहत यत् किं च दुरितं मयि
यद्वाहमभिदुद्रोह यद्वा शेष उतानृतम्
अर्थात हे जल देवता, मुझसे जो भी पाप हुआ हो, उसे मुझसे दूर बहा दो अथवा मुझसे जो भी द्रोह हुआ हो, मेरे किसी कृत्य से किसी को कष्ट हुआ हो अथवा मैंने किसी को अपशब्द कहे हों, अथवा असत्य वचन बोले हों, तो वह सब भी दूर बहा दो।

Thursday, May 15, 2025

जल संचयन बना जन आंदोलन


डॉ. सौरभ मालवीय 
उत्तर प्रदेश सहित देशभर में जल संरक्षण अभियान को सफल बनाने के लिए जनभागीदारी सुनिश्चित की जा रही है। वर्षा ऋतु आरंभ होने के साथ-साथ इस अभियान को और अधिक तीव्र कर दिया गया है। इस पुनीत कार्य में केंद्र सरकार एवं राज्य सरकार के नेतृत्व में जन साधारण भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।   
    
उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ की सरकार प्रदेश में जल संचयन को बढ़ावा दे रही है। इसके लिए सरकार ने ‘जल शक्ति अभियान: कैच द रेन' प्रारंभ किया है। इसके अंतर्गत वर्षा के जल को संचित करने तथा भूजल स्तर को बढ़ाने के लिए अनेक कार्य किए जा रहे हैं। तालाबों, पोखरों तथा अन्य जलाशयों की सफाई एवं मरम्मत का कार्य तीव्र गति से चल है, क्योंकि वर्षा ऋतु आरंभ हो चुकी है। इसके अतिरिक्त पौधारोपण अभियान भी चलाया जा रहा है, जिससे अधिक से अधिक वर्षा का जल भूमि में समा सके। इस अभियान के अंतर्गत विद्यालयों, महाविद्यालयों, सरकारी कार्यालयों एवं ग्रामीण क्षेत्रों में जल संरक्षण के प्रति जागरूकता के कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का कहना है कि इस अभियान का उद्देश्य प्रदेश के प्रत्येक व्यक्ति को जल संरक्षण के महत्व से अवगत करवाना है। उन्होंने कहा कि जल संकट से निपटने के लिए यह अति आवश्यक है कि हम सभी मिलकर जल संरक्षण के लिए प्रयास करें।
 
उल्लेखनीय है कि केंद्रीय जल मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने विगत 9 मार्च को नई दिल्ली में ‘जल शक्ति अभियान: कैच द रेन’ अभियान के पांचवें संस्करण का शुभारंभ किया था। ‘नारी शक्ति से जल शक्ति’ थीम वाले इस अभियान में जल संरक्षण एवं प्रबंधन में महिलाओं की अभिन्न भूमिका पर बल दिया गया है। यह अभियान पेयजल एवं स्वच्छता विभाग के सहयोग से राष्ट्रीय जल मिशन, जल संसाधन, नदी विकास और गंगा कायाकल्प विभाग के अंतर्गत आता है। इस कार्यक्रम का प्रारंभ ‘जल कलश'समारोह के साथ हुआ, जो भविष्य में जल संरक्षण एवं इसके सतत उपयोग के प्रति सामूहिक प्रतिबद्धता को दर्शाता है। केंद्रीय मंत्री ने कहा कि यह कार्यक्रम जल संरक्षण एवं सतत विकास के प्रति सरकार की अटूट प्रतिबद्धता को दर्शाता है और इन प्रयासों में 'नारी शक्ति' अग्रणी भूमिका निभा रही है। हमारा दृढ़ विश्वास है कि महिलाओं का सशक्तीकरण करने से राष्ट्र सशक्त होगा। इस समारोह में सम्मिलित होने वाली महिलाएं देश की उन सभी महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो हमारे देश को एक विकसित राष्ट्र बनाने के हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दृष्टिकोण को पूर्ण करने का दायित्व उठा रही हैं। उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि महिलाओं ने अपने सामूहिक प्रयास के माध्यम से जल संसाधनों का संरक्षण प्रभावी रूप से किया है। उन्होंने कहा कि महिलाओं में अनुकूलन एवं नवाचार करने की क्षमता है, जो जल संसाधन प्रबंधन में एक सकारात्मक बदलाव लाने के लिए अपनी शक्ति एवं क्षमता का प्रदर्शन करती है। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में, हमारा लक्ष्य भारत को एक वैश्विक विनिर्माण केंद्र बनाना है, जिससे देश की आर्थिक गतिविधियों में वृद्धि होगी, जिसके कारण देश में पानी की मांग बढ़ेगी जिसे प्रभावी एकीकृत जल प्रबंधन के माध्यम से पूरा किया जाएगा। भारत में पानी की मांग भूजल एवं वर्षा पर बहुत अधिक निर्भर करती है। पाइप से पानी आपूर्ति की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए फील्ड टेस्टिंग किट का उपयोग कर पानी के नमूनों का परीक्षण करने के लिए लगभग 24 लाख महिलाओं को प्रशिक्षित किया गया है। अटल भूजल योजना में जल बजट और जल सुरक्षा योजनाओं की तैयारी के लिए ग्राम पंचायत में कम से कम 33 प्रतिशत महिला सदस्यों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया गया है। उन्होंने केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सहयोगात्मक प्रयासों की सराहना की। उन्होंने पिछले अभियानों में देश के नागरिकों की सक्रिय भागीदारी की सराहना की, जिन्होंने इस अभियान को जल संरक्षण के लिए जन आंदोलन बना दिया। उन्होंने इसे जल-सुरक्षित और सतत भविष्य की दिशा में एक परिवर्तनकारी आंदोलन कहा। प्रधानमंत्री के जल संचय मंत्र से प्रेरित होकर, जल शक्ति मंत्रालय ने पूरे देश में जल संरक्षण के कार्य में तेजी लाने के लिए जन भागीदारी द्वारा जमीनी स्तर पर जल संरक्षण शुरू करने के लिए 2019 में जल शक्ति अभियान को ‘जन आंदोलन’बनाया।
 
अमृत सरोवर योजना
योगी सरकार अमृत सरोवर योजना पर भी निरंतर तीव्र गति से कार्य कर रही है। उल्लेखनीय है कि अमृत सरोवर विकसित करने में देशभर में उत्तर प्रदेश अग्रणी है। प्रदेश स्तर पर गाजियाबाद शीर्ष पर है। उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जल संरक्षण के लिए 24 अप्रैल 2022 को अमृत सरोवर योजना प्रारंभ की थी। इसका उद्देश्य स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के अवसर पर देश के प्रत्येक जिले में कम से कम 75 अमृत सरोवरों का निर्माण एवं विकास करना था। इस योजना के अंतर्गत 15 अगस्त 2023 तक 50 हजार अमृत सरोवर बनाने का लक्ष्य रखा गया था, जिसे निर्धारित समय-सीमा के पूर्व प्राप्त कर लिया गया है, जो कि एक बड़ी उपलब्धि है।  
 
इस योजना के माध्यम से वर्षा जल संरक्षण एवं संचयन के संकल्प को साकार करने के लिए केंद्र सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय ने नोडल मंत्रालय के रूप में कार्य करते हुए विभिन्न मंत्रालयों के सहयोग से इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मिशन मोड में कार्य किया। जीर्ण हो चुके सरोवरों के जीर्णोद्धार से लेकर नए सरोवरों के निर्माण की विस्तृत योजना तैयार की गई। योजना के सभी बिन्दुओं में ‘संपूर्ण सरकार’ दृष्टिकोण एवं ‘जनभागीदारी’ को केन्द्र में रखकर किए गए प्रयासों का ही परिणाम है कि निर्धारित समय से पूर्व 50 हजार अमृत सरोवरों के निर्माण का लक्ष्य प्राप्त किया जा सका। यह कार्य राज्यों एवं केन्द्र शासित प्रदेशों में जिला प्रशासन, पंचायत राज पदाधिकारियों, जनप्रतिनिधियों, पंचायतों, स्वयंसेवी संगठनों, विभिन्न संस्थानों के समन्वित प्रयासों और जनसाधारण की भागीदारी से किया जा रहा है। 
 
इस योजना का ध्येय यह भी है कि अमृत सरोवरों का निर्माण अथवा जीर्णोद्धार इस प्रकार किया जाए कि वे स्थानीय सामुदायिक गतिविधियों का केन्द्र बन जाए। सरोवरों के रखरखाव में समुदाय का स्वामित्व हो, ताकि उनका दीर्घकालीन संरक्षण सुनिश्चित किया जा सके। इसलिए प्रत्येक सरोवर के लिए उपयोगकर्ता समूह का गठन किया जा रहा है। अब तक 60 हजार से अधिक उपयोगकर्ता समूह सरोवरों के रखरखाव एवं उससे अपनी आजीविका सृजन के लिए इस योजना से जुड़ चुके हैं। इस अभियान के प्रति लोगों में अपार उत्साह दिखाई दे रहा है। सरकार के विशेष प्रयास से यह योजना एक जन आन्दोलन का रूप ले चुकी है। इसमें स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारजन, शहीदों के परिवारजन, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के परिवारजन, पंचायतों के वरिष्ठ सदस्यों एवं पद्म पुरस्कार से सम्मानित लोग भी सम्मिलित हो रहे हैं। यह जन भागीदारी इस योजना की सफलता का प्रतीक है।
 
प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना
योगी सरकार प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना पर भी गंभीरता से कार्य कर रही है। इसका उद्देश्य खेत पर पानी की भौतिक पहुंच को बढ़ाना एवं सुनिश्चित सिंचाई के अंतर्गत खेती योग्य क्षेत्र का विस्तार करना, कृषि जल उपयोग दक्षता में सुधार करना, स्थायी जल संरक्षण प्रथाओं को लागू करना आदि है। इसके अंतर्गत वर्षा जल संचयन के लिए खेत में तालाब बनाने के लिए किसानों को वित्तीय सहायता उपलब्ध करवाई जाती है अर्थात उन्हें
50 प्रतिशत अनुदान प्रदान किया जाता है। इस योजना के अंतर्गत किसान अपने खेत में लघु अथवा माध्यम तालाब का निर्माण करवा सकते हैं।
 
सर्वविदित है कि भारत में जल संकट की समस्या से जूझ रहा है। गर्मी के मौसम में पेयजल संकट इतना गंभीर हो जाता है कि लोग जल के लिए तरस जाते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में विश्व की लगभग 18 प्रतिशत जनसंख्या है, परंतु पेयजल केवल चार प्रतिशत है. निरंतर बढ़ती जनसंख्या के साथ-साथ पेयजल की मांग में भी वृद्धि हो रही है। केंद्रीय जल आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2021 और 2031 के लिए औसत वार्षिक प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता क्रमशः 1486 घन मीटर और 1367 घन मीटर आंकी गई है। 1700 घन मीटर से कम वार्षिक प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता को जल संकट की स्थिति माना जाता है, जबकि 1000 घन मीटर से कम वार्षिक प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता को जल कमी की स्थिति माना जाता है।

'जल' राज्य का विषय होने के कारण, जल संसाधनों के संवर्धन, संरक्षण और कुशल प्रबंधन के लिए कदम, जो प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता के मुद्दे पर सकारात्मक प्रभाव डालते हैं, मुख्य रूप से संबंधित राज्य सरकारों द्वारा उठाए जाते हैं। राज्य सरकारों के प्रयासों को पूरा करने के लिए, केंद्र सरकार विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों के माध्यम से उन्हें तकनीकी और वित्तीय सहायता प्रदान करती है। भारत सरकार, राज्य के साथ साझेदारी में वर्ष 2024 तक देश के प्रत्येक ग्रामीण घर में नल के जल की आपूर्ति का प्रावधान करने के लिए जल जीवन मिशन लागू कर रही है।

भारत सरकार ने जल आपूर्ति की सार्वभौमिक कवरेज सुनिश्चित करने और शहरों को 'जल सुरक्षित' बनाने के लिए देश के सभी वैधानिक कस्बों को कवर करते हुए 1 अक्टूबर, 2021 को अमृत 2.0 लॉन्च किया है।
निसंदेह सरकार की इन योजनाओं से तालाबों में वर्षा का जल संचय हो पाएगा। इससे किसानों के खेतों को पर्याप्त सिंचाई जल उपलब्ध हो सकेगा। वास्तव में इन अभियानों से जल संरक्षण को बढ़ावा मिलेगा। इससे जल संकट की समस्या से निपटने में सहायता मिलेगी।

अपनी जड़ों की ओर लौटने का प्रयास


डॉ. सौरभ मालवीय 
हमारी प्राचीन भारतीय सभ्यता विश्व की सर्वाधिक गौरवशाली एवं समृद्ध सभ्यताओं में एक है। विश्व के अनेक देशों में जब बर्बरता का युग था, उस समय भी हमारी भारतीय सभ्यता अपने शीर्ष पर थी। इसका सबसे प्रमुख कारण है शिक्षा। हमारे पूर्वजों ने शिक्षा के क्षेत्र में अत्यंत उन्नति की। शिक्षा के माध्यम से ही जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विकास हुआ। इस पवित्र भारत भूमि पर वेद-पुराणों की रचना हुई तथा यह सब शिक्षा के कारण ही संभव हो सका। मनुष्य के लिए जितने आवश्यक वायु, जल एवं भोजन है, उतनी ही आवश्यक शिक्षा भी है। शिक्षा के बिना मनुष्य पशु समान है।
विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम्।
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम्।
विद्या राजसु पुज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः।।
अर्थात विद्या मनुष्य का विशेष रूप है, विद्या गुप्त धन है। वह भोग की दाता, यश की दाता एवं उपकारी है। विद्या गुरुओं की गुरु है। विद्या विदेश में बंधु है। विद्या देवता है। राजाओं के मध्य विद्या की पूजा होती है, धन की नहीं। विद्या विहीन मनुष्य पशु है।
निसंदेह किसी भी सभ्य समाज के लिए शिक्षा अति आवश्यक है। शिक्षा केवल जीविकोपार्जन के लिए नहीं होती कि विद्यालय, महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालय से शैक्षिक प्रमाण-पत्र प्राप्त कर राजकीय या अराजकीय नौकरी प्राप्त कर ली जाए। शिक्षा का उद्देश्य तो मानव के संपूर्ण जीवन का विकास करना होता है। हमारी प्राचीन भारतीय सभ्यता में शिक्षा को अत्यधिक महत्त्व प्रदान किया गया है। मनुष्य के भौतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान के लिए शिक्षा अति आवश्यक है। शिक्षित व्यक्ति के लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं होता।
विद्या वितर्का विज्ञानं स्मति: तत्परता किया।
यस्यैते षड्गुणास्तस्य नासाध्यमतिवर्तते।।
अर्थात विद्या, तर्क, विज्ञान, स्मृति, तत्परता एवं दक्षता, जिसके पास ये छह गुण हैं, उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है। विद्या अथवा शिक्षा प्रकाश का वह स्त्रोत है, जो मानव जीवन को प्रकाशित करता है। प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति श्रेष्ठ शिक्षा पद्धति थी। किन्तु कालांतर में शिक्षा पद्धति में परिवर्तन आया तथा शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी प्राप्त करने तक ही रह गया। बहुत समय से वर्तमान शिक्षा पद्धति में परिवर्तन की बात उठ रही थी तथा ऐसी शिक्षा पद्धति की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी, जिससे बच्चों का सर्वांगीण विकास हो सके। साथ ही बच्चों के कंधों से बस्ते का भार कुछ कम किया जा सके।
  
उत्तम शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम में चारित्रिक विकास एवं मानवीय गुणों को विकसित करने के विषयों को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए। विज्ञान एवं तकनीकी विषयों से केवल मनुष्य की भौतिक उन्नति होती है, किन्तु औद्योगिक उन्नति के साथ-साथ मानवीय मूल्य भी विकसित होने चाहिए, जिससे नागरिक सामाजिक, नैतिकता तथा आध्यात्मिक मूल्यों को प्राप्त कर सकें। वर्तमान युग में मनुष्य ज्यों-ज्यों भौतिक उन्नति कर रहा है, त्यों-त्यों वह जीवन के मूल्यों को पीछे छोड़ता जा रहा है। आपसी पारिवारिक संबंध टूटते जा रहे हैं। किसी को किसी की तनिक भी चिंता नहीं है। परिवार के वृद्धजनों को वृद्धाश्रम में डाल दिया जाता है तथा बच्चे बोर्डिंग स्कूल में भेज दिए जाते हैं। ग्रामों की पैतृक संपत्ति को बेचकर महानगरों में छोटे-छोटे आवासों में भौतिक सुख-सुविधा में जीने को ही मनुष्य ने जीवन की सफलता मान लिया है। यदि हमें अपनी जड़ों की ओर लौटना है, तो सबसे पहले वर्मान शिक्षा पद्धति में सुधार करना होगा। इसी उद्देश्य के दृष्टिगत उत्तर प्रदेश सरकार राज्य के सभी विद्यालयों में प्रथम कक्षा से लेकर आठवीं कक्षा तक अनुभूति पाठ्यक्रम लागू करने जा रही है।
  
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इस बात पर चिंता प्रकट की जा रही है कि मानव का जीवन- मूल्यों से विश्वास उठता जा रहा है। वह चरित्र की अपेक्षा धन को महत्त्व दे रहा है। इससे उसका नैतिक पतन हो रहा है। मनुष्य के चारित्रिक पतन के कारण समाज में अपराध दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं। इसलिए पाठ्यक्रम में ऐसे परिवर्तन की आवश्यकता है, जिससे मनुष्य का नैतिक विकास हो तथा वह एक सुसभ्य समाज का निर्माण करने में सहायक सिद्ध हो सके। नि:संदेह शिक्षा इसका सबसे सशक्त माध्यम है। नई शिक्षा पद्धति का उद्देश्य ऐसे सदाचारी मनुष्यों का विकास करना है, जिनमें दया, करुणा, सहानुभूति एवं साहस हो। जो नैतिक मूल्यों से संपन्न हों, जिनके लिए मानवीय मूल्य सर्वोपरि हों।  
 
शिक्षा का प्रथम उद्देश्य विद्यार्थी के चरित्र का निर्माण करना होता है। भारतीय संस्कृति में चरित्र निर्माण पर सर्वाधिक बल दिया गया है। मनुस्मृति के अनुसार सभी वेदों का ज्ञाता विद्वान भी सच्चरित्रता के अभाव में श्रेष्ठ नहीं है, किन्तु केवल गायित्री मंत्र का ज्ञाता पंडित यदि चरित्रवान है, तो श्रेष्ठ है। शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान प्राप्त करना नहीं होना चाहिए। शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थी का सर्वांगीण विकास करना है, ताकि वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विकास कर सके। शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थी को उसके अधिकारों के साथ-साथ उसके कर्त्तव्यों के बारे में भी बताना है, ताकि वह अपने अधिकारों को प्राप्त कर सके तथा परिवार एवं समाज के प्रति अपने कर्त्तव्यों का भी निर्वाहन कर सके। शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थी के जीवन स्तर को उन्नत व समृद्ध बनाना भी है। शिक्षा के माध्यम से वह अपने जीवन को सुगम, उन्नत एवं समृद्ध बना सके। विद्यार्थियों को अक्षर ज्ञान के साथ-साथ व्यवसायिक कार्यों का भी प्रशिक्षण दिया जाता था, ताकि वे अपने-अपने कार्यों में भी निपुणता प्राप्त कर सकें। एक नैतिकता से परिपूर्ण चरित्रवान व्यक्ति ही अपने कुल तथा देश का नाम ऊंचा करता है।
 
उत्तर प्रदेश में ऐसी ही शिक्षा पद्धति को लागू किया जा रहा है। कम शब्दों में बात की जाए, तो मूल रूप से शिक्षा के दो ही उद्देश्य हैं, प्रथम यह कि व्यक्ति शिक्षा ग्रहण कर समृद्धि प्राप्त करे एवं प्रसन्नतापूर्वक जीवनयापन करे तथा द्वितीय यह कि वह दूसरों को प्रसन्नता एवं सहायता प्रदान करने योग्य हो। छोटी कक्षाओं से लेकर महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय तक की शिक्षा का कुल उद्देश्य यही है। अब प्रश्न यह उठता है कि जब वर्तमान शिक्षा का उद्देश्य समृद्धि ही है तो फिर अनुभूति पाठ्यक्रम की आवश्यकता क्यों है? 

वास्तव में हम सुख-सुविधाओं को जीवन का उद्देश्य मान बैठे हैं। आज उच्च शिक्षा प्राप्त करके तथा उसके माध्यम से उच्च पद प्राप्त करना। तत्पश्चात अकूत धन-संपदा एकत्रित करना ही जीवन का उद्देश्य बनकर रह गया है। इस भागदौड़ में मानवीय मूल्यों का निरंतर ह्रास हो रहा है। इन्हीं मानवीय मूल्यों के दृष्टिगत उत्तर प्रदेश में अनुभूति पाठ्यक्रम लागू किया जा रहा है।  राज्य में शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य हो रहे हैं। बात चाहे प्राथमिक शिक्षा की हो, माध्यमिक शिक्षा की हो, व्यावसायिक शिक्षा की हो या उच्च शिक्षा की, सभी क्षेत्रों में सराहनीय कार्य किए जा रहे हैं। आशा है कि राज्य के शिक्षकों एवं शिक्षाविदों के माध्यम से अनुभूति पाठ्यक्रम विद्यार्थियों में नई ऊर्जा का संचार करेगा तथा यह विद्यार्थियों के लिए बहुत उपयोगो सिद्ध होगा। 

अनुभव से ही सीखना प्रारम्भ करते हैं बालक


डॉ. सौरभ मालवीय 
मनुष्य जन्म से लेकर मृत्य तक कुछ न कुछ सीखता रहता है। उसके जन्म के साथ ही सीखने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। प्रकृति सबसे बड़ी शिक्षक होती है। बालक को कोई कष्ट होता है, तो वह रोने लगता है। उसके रोने की आवाज सुनकर उसकी माता उसके पास आती है और उसका कष्ट दूर करती है। बालक भूखा होता है, तब भी वह रोने लगता है और उसकी माता उसे दुग्धपान करवाती है। बालक भली भांति समझ जाता है कि उसे कुछ चाहिए तो उसे क्या करना है। सर्वविदित है कि बालक अपनी मांग मनवाने के लिए पहले जिद करते हैं और जब कभी जिद पूर्ण नहीं हो पाती है, तो वे रोने लगते हैं। जन्म से ही उनमें समझ का विकास होने लगता है और यह प्राकृतिक एवं नैसर्गिक है। 
 
माता बालक की प्रथम गुरु होती है और उसकी गोद बालक का प्रथम गुरुकुल होता है। इसके पश्चात बालक अपने परिवारजनों को देखकर सीखते हैं। उनसे ही उन्हें ज्ञात होता है कि किस व्यक्ति के साथ उनका कैसा संबंध है। कौन संबंधी है और कौन अपरिचित है। अपने संबंधियों के साथ उन्हें किस प्रकार का व्यवहार करना है। किस प्रकार उनका आदर-सत्कार करना है। सभी बालक अपने परिवार से ही सीखते हैं। उन्हें परिवार से जैसी शिक्षा एवं संस्कार मिलते हैं, वे उसी के अनुरूप व्यवहार करते हैं। कहा जाता है कि बालक कच्ची मिट्टी के समान होते हैं। उन्हें जिस आकार में ढालो, वे ढल जाते हैं। बालकों के मन एवं मस्तिष्क पर उनके आसपास के परिवेश एवं वातावरण का गहरा प्रभाव पड़ता है।     
अमेरिकी लेखक डोरोथी नाल्ट के अनुसार बच्चे वही समझते हैं, जो वे जीते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सिद्धांत एवं विवेक दोनों इस पर सहमत हैं। बालकों के बाल्यकाल के अनुभवों से उनके सीखने, समझने और विकास का क्रम प्रभावित होता है।        
 
विगत कुछ समय से अनुभव आधारित शिक्षा की चर्चा हो रही है। अनुभव आधारित शिक्षण क्या है? सर्वप्रथम यह समझना अति आवश्यक है। अनुभव के आधार पर जो ज्ञान अर्जित किया जाता है, उसे ही अनुभव आधारित शिक्षण कहा जाता है। यदि कोई बालक किसी चीज को देखकर, सुनकर या स्वयं के अभ्यास के द्वारा सीखता है तो उसे अनुभव के आधार पर सीखना कहा जाएगा। उदाहरण के लिए कोई बालक किसी को साईकिल चलाते हुए देखता है और फिर स्वयं भी उसे चलाने का प्रयास करता है। इस अभ्यास के दौरान वह कई बार गिर जाता है, परन्तु वह अपना अभ्यास निरंतर जारी रखता है। परिणाम स्वरूप एक दिन वह साईकिल चलाना सीख जाता है। जीवन का सबसे बड़ा ज्ञान व्यक्ति को अनुभव के आधार पर ही प्राप्त होता है। बालिकाएं अपनी माता को भोजन बनाते हुए देखती हैं। फिर वे भी भोजन बनाने का प्रयास करती हैं। आरम्भ में वे स्वादिष्ट भोजन नहीं बना पाती हैं। कई बार नमक या मिर्च कम या अधिक हो जाती है। इसी प्रकार रोटी भी टेढ़ी-मेढ़ी बनती हैं, परन्तु अभ्यास से वे स्वादिष्ट भोजन और गोल रोटी बनाना सीख जाती हैं। इस भोजन बनाने के अभ्यास के दौरान बालिकाओं के परिवारजन उनका उत्साहवर्द्धन करते हैं तथा उनका मनोबल बढ़ाते हैं। भोजन स्वादिष्ट न होने के पश्चात भी वे उसे प्रसन्नता पूर्वक ग्रहण करते हैं तथा बालिका की प्रशंसा भी करते हैं। इस प्रशंसा से प्रसन्न होकर बालिका पहले से भी अधिल परिश्रम करती है। ऐसे बहुत से कार्य हैं, जो बालक अपने परिवारजनों से सीखते हैं।  
अक्षर ज्ञान आवश्यक एवं उत्तम है, परन्तु व्यवहारिक ज्ञान सर्वोत्तम है। इसमें कोई दो मत नहीं है कि मनुष्य शनै- शनै सीखता है। सीखने की गति समय एवं परिस्थितियों पर निर्भर करती है। उसके अनुभव उसके जीवन की दशा एवं दिशा प्रशस्त करते हैं। अनुभव उसे वह पाठ पढ़ा जाते हैं, जो वह कभी नहीं भूलता। 
 
विद्वान मानते हैं कि अनुभवों से लाभान्वित होना ही अधिगम है। इसलिए छात्रों को अनुभव आधारित शिक्षा प्रदान करने को अधिक से अधिक महत्व देना चाहिए। इसके लिए ऐसे पाठ्यक्रम की आवश्यकता है, जो विद्यार्थियों को विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित व्यापक अनुभव प्रदान करने में सक्षम हो।
अमेरिकी शिक्षक गैलेन सायलर एवं विलियम अलेक्जेंडर के अनुसार- “अनुभव आधारित पाठ्यक्रम वह है, जिसमें अधिगम अनुभव की इकाइयां विद्यार्थियों के द्वारा शिक्षक के निर्देशन में स्वयं चुनी तथा योजनाबद्ध की जाती हैं।“
 
संयुक्त राज्य अमेरिका के शिक्षाशास्त्री जॉन डीवी के अनुसार- “अनुभव एवं ज्ञान क्रिया के परिणाम हैं।“ वह ज्ञान एवं अनुभव में कोई भेद नहीं मानते हैं। उनके अनुसार- “ज्ञान अनुभव से प्राप्त होता है और अनुभव स्वयं करके प्राप्त होता है। इसलिए पाठ्यक्रम अनुभव प्रधान होना चाहिए। मनुष्य किसी भी परिस्थिति में रहे, परिस्थितियों में क्रिया करते हुए ही मनुष्य अनुभव प्राप्त करता है और यह भी सत्य है कि एक अनुभव से दूसरा तथा दूसरे से तीसरा  और इसी प्रकार आगे के अनुभव हमें प्राप्त होते रहते हैं। प्रत्येक अनुभव हमें आगे के अनुभव प्राप्त करने में सहायक होता है। अतः पाठ्यक्रम का उद्देश्य विद्यार्थियों को अधिक से अधिक अनुभव प्रदान करना होना चाहिए।“
 
आज हम विदेशों से बहुत सी चीजें ग्रहण कर रहे हैं। यद्यपि हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति अत्यधिक प्रभावशाली एवं उत्तम थी। प्राचीन काल से ही हमारा देश शिक्षा के क्षेत्र में विख्यात रहा है। भारत शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। इस पवित्र भूमि पर पवित्र ग्रन्थों की रचना हुई। यहां वेद-पुराणों की रचना हुई। ये महान ग्रन्थ यहां की उच्च कोटि की पद्धति के प्रमाण हैं। यह सब व्यवहारिक शिक्षा के कारण ही संभव हो सका। इसे सर्वोत्तम कहना भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। भारतीय संस्कृति में शिक्षा को अत्यधिक महत्त्व प्रदान किया गया है। मनुष्य के भौतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान के लिए शिक्षा को अति आवश्यक माना गया है। शिक्षित व्यक्ति के लिए विश्व का कोई भी कार्य असंभव नहीं होता।
विद्या वितर्का विज्ञानं स्मति: तत्परता किया।
यस्यैते षड्गुणास्तस्य नासाध्यमतिवर्तते।।
अर्थात विद्या, तर्क, विज्ञान, स्मृति, तत्परता एवं दक्षता, जिसके पास ये छह गुण हैं, उसके लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं है। विद्या अथवा शिक्षा प्रकाश का वह स्त्रोत है, जो जीवन को प्रकाशमान करता है। प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति श्रेष्ठ शिक्षा पद्धति थी, किन्तु कालांतर में शिक्षा पद्धति में परिवर्तन आया। आज फिर ऐसी शिक्षा पद्धति की आवश्यकता अनुभव की जा रही है, जिससे बच्चों का सर्वांगीण विकास हो सके।
 
दादी और नानी बालकों को भिन्न-भिन्न प्रकार की कहानियां सुनाती हैं। इन कथा- कहानियों के माध्यम से वे बालकों में संस्कार पोषित करती हैं। ये संस्कार उनके चरित्र का निर्माण करने में सहायक सिद्ध होते हैं। यही संस्कार संकट के समय दीपक बनकर उनके जीवन में प्रकाश का कार्य करते हैं तथा उनका मार्गदर्शन करते हैं। अपने पैतृक गांव अथवा पैतृक नगरों में जाते हैं तो वे वहां की संस्कृति से जुड़ते हैं। उनके वहां की बहुत सी चीजों को जानने और समझने का अवसर प्राप्त होता है। ऐतिहासिक धरोहरों से वे इतिहास से परिचित होते हैं। तीज-त्यौहारों से वे अपनी धार्मिक संस्कृति से परिचित होते हैं। अक्षर ज्ञान से बच्चे इतनी शीघ्रता से नहीं सीख पाते, जितने शीघ्रता से वे अनुभव के आधार पर सीख जाते हैं। उदाहरण के लिए जिस बालक ने कभी दीपावली का त्यौहार मनाते हुए नहीं देखा, उसे पुस्तक के माध्यम से दीपावली के बारे में बताया जाए और फिर उससे दीपावली के बारे में लिखने के लिए कहा जाए, तो वह इतना अच्छा नहीं लिख पाएगा, जितना अच्छा वह बालक लिख पाएगा, जिसने दीपावली मनाई है या मनाते हुए देखा है। इसका कारण यह है कि पहले बालक ने केवल शब्दों के माध्यम से दीपावली के बारे में ज्ञान अर्जित किया है, जबकि दूसरे बालक ने दीवापली मनाकर या देखकर व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त किया है। इस व्यवहारिक ज्ञान में उसका अनुभव एवं अनुभूति भी सम्मिलत है। इसलिए दूसरे बालक ने दीपावली के बारे में वह ज्ञान प्राप्त किया, जो उसे सदैव स्मरण रहेगा।     
 
विश्व की शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी सरोकारों के लिए गठित संगठन यूनेस्को के अनुसार समझने की प्रक्रिया के चार स्तंभ हैं। प्रथम स्तंभ है जानने के लिए सीखना एवं समझना- अपने आसपास के परिवेश और विश्व में जो कुछ भी है उसे सीखना एवं समझना, उसे भावना और तर्क के साथ समझना। यह जानना कि जो कुछ सीखा एवं देखा उसका भावनाओं के उदात्तीकरण और उन्नयन की दृष्टि से क्या महत्त्व है और यह कितना व्यवहारिक है। 
द्वितीय है करने के लिए सीखना एवं समझना- जो परिस्थितियों, परिवेश और वातावरण में मिले उसे स्वीकार करना और उन परिस्थितियों को समाज और स्वयं के लिए उपयोगी कैसे बनाया जाए- यह सुनिश्चित करना है।
तृतीय है होने के लिए सीखना एवं समझना- होने का यहां अर्थ अपने अस्तित्व को सिद्ध करना है अर्थात एक मनुष्य, एक नागरिक के रूप में मेरा कहां क्या दायित्व है और उस व्यक्ति के रूप में मेरा उपस्थित होना कितना प्रभावी है- यह निर्धारण करना है। क्या समाज और परिस्थितियों में मेरे व्यक्तित्व के लिए कोई स्थान है या मैं यहां अनुपयुक्त हूं। इस संबंध में सचेत रहना है।
चतुर्थ है साथ रहने के लिए सीखना एवं समझना- सभी धर्मों, जातियों, आयु वर्ग के लोगों, लिंग संबंधी भिन्नता रखने वाले लोगों के साथ सहिष्णुता पूर्वक रह सकना। संपूर्ण विश्व की विविधताओं, संस्कृतियों, भाषाओं एवं भौगोलिकताओं को आदर देना। उनके साथ सहिष्णुता पूर्वक रह सकने की क्षमता और आदत विकसित करना।    
 
वास्तव में जिस व्यक्ति में प्रेम और सद्भाव आदि गुण होते हैं, वह विश्व के किसी भी क्षेत्र में आराम से रह सकता है। ये गुण बालकों में बाल्यकाल से ही रोपित करने होते हैं। महामना मदनमोहन मालवीय का मानना था कि शिक्षा का उद्देश्य छात्र के व्यक्तित्व के बौद्धिक, भावनात्मक और सामाजिक पहलुओं को विकसित करना होना चाहिए। शिक्षा को न केवल सैद्धांतिक ज्ञान पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, अपितु व्यावहारिक प्रशिक्षण और कौशल विकास भी प्रदान करना चाहिए।   
इसी प्रकार स्वामी विवेकानन्द भी व्यावहारिक शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। उनके अनुसार- “जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र गठन कर सके और विचारों का सामंजस्य कर सकें वहीं वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है।”  

पत्रकार की लेखनी में भारत निर्माण का भाव होना आवश्‍यक : सुभाष जी

 • आद्य पत्रकार देवर्षि नारद जी की जयंती के उपलक्ष्‍य में 'लोकमंगल की पत्रकारिता एवं राष्‍ट्रधर्म' विषयक विचार गोष्‍ठी का आयोजन • वि...